Tuesday, April 30, 2013

मुझको भी तरकीब सिखा दो यार जुलाहे...

मुझको भी तरकीब सिखा दो यार जुलाहे
अकसर तुझको देखा है एक ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिराहें
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा दो यार जुलाहे
गुलज़ार.












No comments:

Post a Comment

1234